हिंदी भाषा हमारे जीवन की अभिन्न हिस्सा है, जिसके बिना इस जीवन की कल्पना कर पाना भी असम्भव है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम भले ही भारत के किसी भी प्रांत में हों और अपने क्षेत्रीय भाषा के आधार पर ही अपनी सर्व शिक्षा संपन्न कर लें। किंतु बिना हिंदी जाने हम भारत को नहीं जान पायेंगे, और जब हम अपने भारत को ही नहीं जान पायेंगे तो फिर हम शिक्षित कैसे कहलाएंगे। इसलिए हिंदी बोलना, हिंदी पढ़ना और हिंदी लिखना अनिवार्य है। और होना भी चाहिए, क्योंकि हम जिस देश में रहते हैं जहाँ हमारा जन्म हुआ है वह देश हिंदुस्तान कहलाता है।
हिंदी भाषा हम भारत वासियों की धरोहर है जिसे हमारे पूज्य पूर्वजों ने परम्परा के अनुसार हमारी संस्कृति में इस तरह से पिरोया है की हम इसे अपनी सामाजिक सभ्यता का स्वरूप मानते हैं। जब बात हमारी संस्कृति और संस्कारों की आए तो हमारे मस्तिष्क में देवभाषा संस्कृत अपने आप ही परिक्रमा करने लगती है। भले ही हम संस्कृत पढ़ने या समझने में असहज महसूस करते हैं किंतु सत्य तो यही है कि हिंदी की उत्पति संस्कृत भाषा से ही हुई है। और हम अपनी इस मातृभूमि की धरोहर हिंदी को आज अलग - अलग प्रांतों में भिन्न - भिन्न प्रकार से बोलते हुए और समझते हुए देख सकते हैं जैसे - हिंदी खड़ी बोली, ब्रजभाषा, अवधि भाषा, बुंदेली, राजस्थानी, कन्नौजी, मगही, मैथिली, भोजपुरी इत्यादि हिंदी भाषाओं को कहते और सुनते हैं।
हिंदी भाषा को हम सदियों से सुनते चले आ रहे हैं लेकिन जब इस भाषा को राष्ट्रीय भाषा के तौर पर संविधान में सम्लित किया जाने लगा तब अपने देश के ही कुछ लोगों ने इसका विरोध किया। जिसके परिणाम स्वरूप आज भी हम सभी भारतवासी इसे अपनी राष्ट्र भाषा के रूप में नहीं स्वीकार करते हैं। और यही कारण है की आज पूरे विश्व में हिंदी के वर्चस्व की सराहना होने के बावजूद भी हम अपने ही देश में हिंदी हीन हैं।
14 सितम्बर अर्थात हिंदी दिवस, यह दिन मात्र एक त्योहार नहीं है जो प्रतिवर्ष एक दिन के लिए ही मनाया जाए। 14 सितम्बर 1953 को हिंदी दिवस के रूप में इसलिए चुना गया क्योंकि केंद्र के माध्यम से हिंदी भाषा को विदेशों में भी सम्मान दिलाया जा सके। और यह तभी संभव हो पाया जब देश के कुछ साहित्यकारों ने अपना अमूल्य योगदान दिया। और जन-जन तक हिंदी भाषा को पहुचाने का अथक प्रयास किया।
कई लोगों का मानना है की हिंदी का विकास बहुत हो चुका है अब सभी लोग इसे बोलते और समझते हैं। लेकिन मेरा यह मानना है कि हिंदी को विकसित तभी समझा जा सकता है जब किसी भी राज्य में किसी भी कार्यालय में हिंदी में हस्ताक्षर करते हुए ना ही कोई संकोच हो और ना ही कोई हिचकिचाहट हो। और ऐसा तभी हो सकता है जब आने वाली पीढ़ियों को अन्य भाषा के बराबर ही हिंदी को भी पढ़ाया और लिखाया जाए। माता-पिता ही बच्चों के पहले शिक्षक कहे जाते हैं, किंतु जब वही माता-पिता अन्य भाषा और हिंदी भाषा में भेद - भाव पैदा करेंगे तो बच्चों की मानसिकता भी उसी तरह हिंदी भाषा को कम और अन्य भाषा को ज्यादा महत्व देती रहेगी।
अंततः मै यही कहूंगा कि सभी साहित्य प्रेमियों के माध्यम से ही हिंदी भाषा का संपूर्ण विकास किया जा सकता है। और हर उस व्यक्ति के मन में हिंदी के प्रति प्रेम पैदा किया जा सकता है जो अभी तक हिंदी भाषा को राष्ट्र भाषा का स्थान नहीं दे पा रहे हैं।
जय हिंद - जय हिंदी
ज्योति प्रकाश राय
जिला- भदोही, उत्तर प्रदेश
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