एक ख्वाब सजाया था मैंने, अम्मा का दुःख दूर करूँगा मै।
एक कसम उठाई थी मैंने, अम्मा का कष्ट हरूँगा मै।।
जो बीता खेल लड़कपन का, वो ख्वाब मिटाई रातों में।
जिस तरह बढ़ी दुनिया मेरी, वो कसम भुलाई बातों में।।
अपनी खुशियों की खातिर, सबका बलिदान करूँगा मै।
एक ख्वाब सजाया था मैंने, अम्मा का कष्ट हरूँगा मै।।
पढ़ने जाता जब विद्यालय, गुरुजन को शीश झुकाता था।
यदि नाम लिया गुरु ने मेरा, मै मन ही मन इतराता था।।
वादा था उनसे भी ऐसा, जग में नाम करूँगा मै।
एक ख्वाब सजाया था मैंने, अम्मा का कष्ट हरूँगा मै।।
उनके भी वादे भूल गया, अब याद नहीं है नाम उनका।
सद्गुण की शिक्षा लुप्त हुई, लुप्त हुआ परिणाम उनका।।
बचपन की यारी जिन्दा है, छुट्टी के किसी महीनें में।
मिलता नहीं सुकूँ पल भर, परिश्रम के आज पसीने में।।
मित्रों से मिलने की कोशिश, फिर से भरपूर करूँगा मै।
एक ख्वाब सजाया था मैंने, अम्मा का कष्ट हरूँगा मै।।
मै किया बसेरा शहरों में, गांव से रिश्ता छूट गया।
जो ख्वाब दिखाई थी मइया, वो ख्वाब कहीं से टूट गया।।
उन रिश्ते, नाते ख्वाबों को, फिर से साकार करूँगा मै।
ज्योति जला कर सद्गुण का, सब में प्रकाश भरूंगा मै।।
एक ख्वाब सजाया था मैंने, अम्मा का दुःख दूर करूँगा मै।
एक कसम उठाई थी मैंने, अम्मा का कष्ट हरूँगा मै।।
!! ज्योति प्रकाश राय !!
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