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दास्ताँ

देखा था जो भी स्वप्न वो स्वप्न छल गए

गुजरी जवान उम्र ख्वाहिश भी टल गए

सोचा था  वो बनेंगे  सहारा बुढ़ापे का

रुपया कमाने घर से बच्चे भी कल गए    (1) 


हम दो ही रह गए हैं अपनी हवेली में

जीता है जैसे आदमी किस्से पहेली में


वो पेड़ गिर रहा जो छाया था दे रहा

फल नही तो नाम का साया था दे रहा


अहमियत से ज्यादा तुम पर लुटा दिया

जीता गया तुम्हे खुद को मिटा दिया


मांगा था जो भी तुमने वो सब दिया तुम्हे

कर्जे में डूब कर भी खुश कर दिया तुम्हे


तकलीफ तब हुई जब तन से बल गए

रुपया कमाने घर से बच्चे भी कल गए    (2) 


क्या याद है तुम्हे या भूल तुम गए

आकर हमारी बाहों में जब झूल तुम गए


खुश होकर मैंने तुम्हे कंधा बिठा लिया

सिर पर खड़ा किया चंदा दिखा दिया


अंगुली पकड़ चले जब थोड़े बड़े हुए

बैठा जमीं पे मै हाँ तब तुम खड़े हुए


मुस्कान देख कर मेरा दिल मचल गया

तुमको हँसाने खातिर मै फिसल गया


तड़पे बहुत थे हम शाला को चल गए

रुपया कमाने घर से बच्चे भी कल गए    (3) 


पेंसिल रबर शियाही काॅपी दिया तुम्हे

जिद पे अड़े थे जब टॉफी दिया तुम्हे


जब भी दिवाली आई दीपक जलाए हम

जो भी कहा था तुमने तुमको दिलाए हम


तुमको ना कोई गम हो गम को भुला दिया

एक बार की है बात तुमको रुला दिया


अम्मा तुम्हारी रात भर खाना नही खाई

पछता रहा था मै भी नींद नही आई


उस वक्त के थे प्रश्न जो आज हल भए

रुपया कमाने घर से बच्चे भी कल गए   (4) 


कुछ भी किया मगर काबिल बना दिया

निश्चिंत हो गए जब मालिक बना दिया


चेहरे का रंग देखा निहाल हम हुए

हँसने लगे थे तुम मालामाल हम हुए


अब सोचता हूँ मै कि नादान कौन था

अपने ही घर में दोनों मेहमान कौन था


इस उम्र के पड़ाव पर आवाज़ दूँ किसे

अब अंत हो रहा  सर-ए-ताज दूँ किसे


कितना सुनाएँ दास्ताँ बीते जो पल गए

रुपया कमाने घर से बच्चे भी कल गए   (5)


ज्योति प्रकाश राय

भदोही, उत्तर प्रदेश

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