मानवता एक बार फिर शर्मसार हुई है और इसका जिम्मेदार भी मानव प्राणी ही हुआ है वह मानव जो संसार में सबसे अधिक बुद्धिमान माना जाता है। जिसके उपयोग के लिए ईश्वर ने सुंदरता की रचना की तो सबसे पहले प्रकृति को रचा, सुंदर और आकर्षक और शीतलता से परिपूर्ण प्रकृति की विशेषता और गुणवत्ता को जानने और उसका सदुपयोग करने के लिए ईश्वर ने मनुष्य को बनाया। मनुष्य ही एक मात्र वह प्राणी है जिस पर सभी जीव-जंतु पशु-पक्षी जीवन को लेकर आश्रित रहते हैं। ऐसे में यदि मनुष्य इनका साथ छोड़ भी देता है तो ये पशु-पक्षी अपना भोजन स्वयं ही ढूंढ लेने में सक्षम होते हैं। परन्तु जब मनुष्य अपने विचारों का दुरुपयोग करता है और खुद को महान दर्शाने की इच्छा से प्रकृति को अपने अनुसार मोड़ता है और ईश्वरीय सौंदर्यता को नष्ट कर अपनी कलाओं का प्रदर्शन करता है उसी क्षण मनुष्य पतन की राह पर आ खड़ा होता है। अपने सुख सुविधा के लिए प्राणी क्या से क्या कर सकता है यह कल्पना कर पाना बहुत ही मुश्किल है। किन्तु जब मनुष्य का लालच इतना अधिक बढ़ जाए कि वह निर्दोष प्राणी का जान लेना भी सूक्ष्म समझने लगे तब मानवता शर्मसार हो जाती है। जब मनुष्य बिना किसी स्वार्थ के ही किसी की सहायता करता है तो उसे मानवता कहा जाता है, और मनुष्य को महान। मनुष्य की महानता ही मानवता का प्रतीक है। किन्तु मनुष्य आज एक दूसरे के साथ इस तरह का विश्वासघात कर रहा है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जी हां मै उस भूख और व्याकुलता की बात कर रहा हूं जो अपने घर से दूर मनुष्यों के रहन - सहन वाली जगह अपने भूख को मिटाने के लिए चल पड़ी थी। उस हथिनी को क्या पता था कि मै जहां जा रही हूं अपने भूख को मिटाने के लिए वहां मुझसे बड़े जानवर मनुष्य के रूप में बैठे हैं जो मेरी जीवनलीला ही समाप्त कर देंगे। मै तो अपना पेट भरने की इच्छा से बस यही सोचकर केरल के जंगल से चलकर गांव पहुंच गई और लोग बड़े आदर सम्मान से कुछ ना कुछ खिला ही रहे थे। उसी बीच किसी व्यक्ति ने कुछ फल के बीच बारूद का गोला बनाकर खिला दिया और खाते ही वह विस्फोट कर गया। मेरे मस्तिष्क पर इतना तेज प्रहार आज से पहले कभी नहीं हुआ था।कुछ ही पलों में रक्त का बहाव देख मेरे सोचने समझने कि शक्ति शून्य हो गई फिर भी मै पानी की तलाश में भागी और नदी में जाकर बैठ वहीं दम तोड़ने के विचार में दिन - रात तड़पती रही। मै अपने आपको कोसू या इसे विश्वासघात का नाम दूं ? यह वही मानव ही तय करेगा जो भगवान श्री गणेश के रूप में मेरी पूजा करता है मुझे शीश झुकता है। यदि मेरे साथ विश्वासघात किया गया है तो क्या सोचकर ? यदि मेरी पूजा की जाती है तो फिर मेरे साथ यह अन्याय क्यूं हुआ ? और अगर मुझे जानवर समझकर मेरे साथ विश्वासघात किया तो मेरे दोषी होने का क्या कारण था ? मेरे गर्भ में पल रहे उस शिशु की व्यथा उसकी ऊर्जा शक्ति के कम होने पर छटपटाने की स्थिति में किससे कहूं ? मै अपने जीवन का ही अंत नहीं, अपने साथ - साथ उस जीव का भी अंत कर रही हूं जो इस पृथ्वी पर जन्म पाने के लिए उत्सुक था। किन्तु उसे यह नहीं पता था कि हमें जानवर कह कर दर्शाने वाला मनुष्य अपने अंदर एक ऐसे खूंखार जानवर को पाल रखा है जिससे बच पाना असम्भव है। अच्छा हुआ मेरा पुत्र इस विश्वासघाती मानव के बीच आने से पहले ही इसका असली रूप देख मेरे प्राण के साथ अपने प्राण भी त्याग रहा है। उस हथिनी रूपी मां की मृत्यु मानव जीवन पर एक कलंक है जिसे इस युग में धो पाना असम्भव है। यदि इसी तरह से विश्वासघात होता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब मनुष्य और जानवर की परिभाषा एक ही लिखी जायेगी। यदि मनुष्य को अपने अस्तित्व को बचाना और मानवता को जीवित रखना है तो परोपकार की भावना से जीवों पर दया करने तथा निर्बल को सबल बनाने पर विचार कर अपने जीवन में पूर्णतः उतारने की आवश्यकता है।
लेखक: ज्योति प्रकाश राय
इस लेख ने यदि आपको जरा सा भी प्रभावित किया हो तो कृपया अपने विचार अवश्य व्यक्त करें। धन्यवाद
Comments
Post a Comment